पितृपक्ष एवं श्राद्घ का पुराणों मे महत्त्व (भाग 1)

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✍️देवभूमि न्यूज 24.इन
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सनातन धर्म में सबको स्थान देते हुए सबके लिए कुछ समय आरक्षित किया गया है ! इसी क्रम में आश्विन कृष्णपक्ष को पितृपक्ष मानते हुए पितरों के लिए अपनी श्रद्धा समर्पित करने का शुभ अवसर मानते हुए उनके निमित्त श्राद्ध आदि किया जाता है ! प्राय: लोग देवपूजन / देवकार्य तो बड़ी श्रद्धा से करते हैं परंतु पितृपक्ष में पितरों की अनदेखी करते हैं जबकि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि👉

“देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते !
देवताभ्यो हि पूर्वं पितृणामाप्यायनं वरम् !!” (हेमाद्रि)

अर्थात्:👉 देवकार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है ! अत: देवकार्य करने से पहले पितरों को तृप्त करने का प्रयास करना चाहिए ! जो भी मनुष्य पितृपक्ष में पितरों को अनदेखा करता है उसके द्वारा किया गया किसी भी देवी – देवता का पूजन कभी भी सफल व फलदायी नहीं होता है ! पितृकार्य में सबसे सरल एवं उपयोगी विधान है श्राद्ध ! अपने पितरों को संतुष्ट व प्रसन्न रखने के लिए श्राद्ध से बढ़कर कोई दूसरा उपाय है ही नहीं ! यथा:–

“श्राद्धात् परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम् !
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन् श्राद्धं कुर्याद् विचक्षण: !!” ( हेमाद्रि )

अर्थात्:👉 श्राद्ध से बढ़कर कल्याणकारी और कोई कर्म नहीं होता ! इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रयत्न पूर्वक अपने पितरों का श्राद्ध करते रहना चाहिए। जो भी मनुष्य अपने पितरों के लिए पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्ध नहीं करता है वह पितृदोष के साथ अनेक आधि – व्याधियों का शिकार होकर के जीवन भर कष्ट भोगा करता है। श्राद्ध कर्म देखने में तो बहुत ही साधारण सा कर्म है परंतु इसका फल बहुत ही बृहद मिलता है जैसा कि कहा गया है :-

“एवं विधानत: श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम् !
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानव: !!” (ब्रह्मपुराण)

अर्थात्:👉 श्राद्ध से केवल अपनी तथा अपने पितरों की ही संतुष्ट नहीं होती अपितु जो व्यक्ति इस प्रकार विधि पूर्वक अपने धन के अनुरूप श्राद्ध करता है वह ब्रह्मा से लेकर घास तक समस्त प्राणियों को संतृप्त कर देता है। श्राद्ध को भार मानकर कदापि नहीं करना चाहिए ! श्राद्ध श्रद्धा का विषय है पूर्ण श्रद्धा से पितरों के प्रति समर्पित होकर शांत मन से श्राद्ध कर्म को करना चाहिए क्योंकि👉

“योनेन् विधिना श्राद्धं कुर्याद् वै शान्तमानस:!
व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुन: !!” (कूर्मपुराण)

अर्थात् :👉 जो शांत मन हो कर विधि पूर्वक श्राद्ध करता है वह संपूर्ण पापों से मुक्त होकर जन्म-मृत्यु के बंधन से छूट जाता है। श्राद्ध का विधान मनुष्य के अनेक पातकों को मिटा देता है ! अपने पितरों के लिए किए गए श्राद्ध से संतुष्ट होकर के पितर धन – धान्य की वृद्धि करते हैं। कोई भी मनुष्य या कोई भी जीव मृत्यु से नहीं बच सकता। जीवन की परिसमाप्ति मृत्यु से होती है। इस ध्रुव सत्य को सभी ने स्वीकार किया है और यह प्रत्यक्ष दिखलाई भी पड़ता है। जीवात्मा इतना सूक्ष्म होता है कि जब वह शरीर से निकलता है उस समय कोई भी मनुष्य उसे अपने चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकता और वही जीवात्मा अपने कर्मों के भोगों को भोगने के लिए एक अंगुष्ठपर्वपरिमिति आतिवाहिक सूक्ष्म (अतीन्द्रिय) शरीर धारण करता है जैसा कि कहा गया है👉

“तत्क्षणात् सो$थ गृह्णाति शारीरं चातिवाहिकम् !
अंगुष्ठपर्वमात्रं तु स्वप्राणैरेव निर्मितम् !!”
(स्कन्दपुराण)

इस सूक्ष्म शरीर के माध्यम से जीवात्मा अपने द्वारा किए गए धर्म और अधर्म के परिणाम स्वरूप सुख-दुख को भोगता है तथा इसी सूक्ष्म शरीर से पाप करने वाले मनुष्य याम्यमार्ग की यातनाएं भोंगते हुए यमराज के पास पहुंचते हैं तथा धार्मिक लोग प्रसन्नता पूर्वक सुखभोग करते हुए धर्मराज के पास जाते हैं। मनुष्य इस लोक से जाने के बाद अपने पारलौकिक जीवन को किस प्रकार सुख समृद्धि एवं शांतिमय बना सकता है तथा उसकी मृत्यु के बाद उस प्राणी के उद्धार के लिए परिजनों के द्वारा क्या किया गया यह बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है। परिजनों द्वारा किया जाने वाला कर्तव्य श्राद्ध कर्म कहा जाता है। यह प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य बनता है कि वह अपने पितरों के लिए समय-समय पर श्राद्ध कर्म करता रहे।

क्रमश: शेष अलगे लेख मे…
✍️ज्यो:शैलेन्द्र सिंगला पलवल हरियाणा mo no/WhatsApp no9992776726
नारायण सेवा ज्योतिष संस्थान