देवभूममी न्यूज नेटवर्क
नई दिल्ली
बदलापुर एनकाउंटर मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने सवाल उठाते हुए कहा है कि आरोपी के सिर में गोली कैसे लगी? वह भी तब जब पुलिस को यह ट्रेनिंग दी जाती है कि गोली कहां मारनी है? आरोपी अक्षय शिंदे की एनकाउंटर में मौत पर हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि पहली नजर में यह एनकाउंटर तो नहीं लग रहा है? इसकी परिभाषा अलग होती है। देश में इन दिनों एनकाउंटर की बाढ़ सी आ गई है, जिसे लेकर कोर्ट सख्त हो गया है। जानते हैं कि एनकाउंटर का क्या मतलब होता है और यह भी समझते हैं कि कानून की नजर में एनकाउंटर की कितनी हैसियत है?
क्या आम आदमी को भी सेल्फ डिफेंस में किसी को मारने का हक है? या यह अधिकार सिर्फ पुलिस को मिला हुआ है। पहले ये जानते हैं कि कोर्ट ने क्या-क्या कहा है?
पुलिसवाले एक कमजोर आदमी को काबू नहीं कर पाए, कैसे
बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि आरोपी के पीछे चार पुलिसवाले थे। फिर यह कैसे संभव है कि वे एक कमजोर आदमी को काबू न कर पाएं। वो भी गाड़ी के पिछले हिस्से में। आरोपी के आगे दो पुलिसवाले और बगल में दो पुलिसकर्मी थे।
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पुलिस की पिस्तौल अनलॉक क्यों थीं, बड़ा सवाल
हाईकोर्ट ने कहा कि पहली नजर में एनकाउंटर में गड़बड़ी लग रही है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने पुलिस से पूछा कि क्या सीधे सिर में गोली मार देते हैं? हाईकोर्ट ने पिस्तौल पर आरोपी की उंगलियों की जांच करने का आदेश दिया। कोर्ट ने कहा कि इसे हम एनकाउंटर नहीं कह सकते, उसकी परिभाषा अलग होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि पुलिस की बंदूक अनलॉक क्यों थी? आरोपी ने भागने की कोशिश की तो उसके सिर पर गोली क्यों मारी गई? हाथ या पैर पर गोली क्यों नहीं मारी गई?
पहली नजर में गड़बड़ी, यह एनकाउंटर नहीं… बदलापुर आरोपी अक्षय शिंदे मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने दागे कई सवाल
कानून या संविधान की नजर में एनकाउंटर लीगल नहीं
सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट अनिल कुमार सिंह श्रीनेत कहते हैं कि एनकाउंटर शब्द का मतलब संघर्ष, सामना, मुकाबला, भिड़ंत, लड़ाई, समागम, आमना-सामना, आकस्मिक मिलन और आकस्मिक भेंट भी होता है। आमतौर पर एनकाउंटर या मुठभेड़ शब्द का मतलब है, पुलिस या सशस्त्र बलों की कार्रवाई में किसी आतंकवादी या अपराधी को मार गिराना। आमतौर पर, एनकाउंटर शब्द का इस्तेमाल दक्षिण एशिया में होता है। इस शब्द का इस्तेमाल भारत और पाकिस्तान में 20वीं सदी से हो रहा है, जब यहां पर ब्रिटिश राज था। यह कानून की नजर में वैध नहीं है।
दो तरह के एनकाउंटर, निचले हिस्से में मारी जाती है गोली
अनिल सिंह श्रीनेत बताते हैं कि एनकाउंटर की स्थिति में पुलिस सबसे पहले अपराधी को चेतावनी देती है। हवाई फायर करती है। अगर वो नहीं रुकता है तो उसे भागने से रोकने के लिए उसके पैरों पर गोली मारी जाती है। तब भी अगर स्थिति कंट्रोल में ना आए तो पुलिस शरीर के अन्य हिस्सों पर फायर करती है। कई बार जब पुलिस किसी अपराधी को पकड़ने जाती है तो वो बचने के लिए फायरिंग करता है। ऐसे में जवाबी कार्रवाई में भी अपराधी को पुलिस गोली मार देती है। मगर, इस दूसरे तरह के एनकाउंटर में भी शरीर के निचले हिस्से में जैसे पैर में गोली मारी जाती है।
एनकाउंटर पुलिसिया शब्द, संविधान में वैध नहीं
अनिल सिंह के अनुसार, भारतीय संविधान के तहत ‘एनकाउंटर’ शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है। पुलिसिया भाषा में इसका इस्तेमाल तब किया जाता है जब सुरक्षाबलों और आतंकियों या पुलिस और अपराधियों के बीच हुई भिड़ंत में आतंकियों और अपराधियों की मौत हो जाती है। भारतीय कानून में वैसे कहीं भी एनकाउंटर को वैध ठहराने का प्रावधान नहीं है। हालांकि, कुछ कायदे-कानून जरूर हैं जो पुलिस को यह ताकत देते हैं कि वो अपराधियों पर हमला कर सकती है और उस दौरान अपराधियों की मौत को जायज ठहराया जा सकता है। यह शब्द आजादी से पहले अंग्रेजी राज के दौरान आया था। उस वक्त बागियों के खिलाफ अंग्रेजी सरकार इसका इस्तेमाल करती थी। पंजाब में आतंकवाद फैलने के दौरान भी यह शब्द काफी चर्चा में रहा था।
CRPC की धारा 46 में जवाबी हमले का था प्रावधान
एडवोकेट अनिल सिंह श्रीनेत के अनुसार, आम तौर पर लगभग सभी तरह के एनकाउंटर में पुलिस आत्मरक्षा के दौरान हुई कार्रवाई का ज़िक्र ही करती है। आपराधिक संहिता यानी CRPC की धारा 46 कहती है कि अगर कोई अपराधी खुद को गिरफ्तार होने से बचने की कोशिश करता है या पुलिस की गिरफ्त से भागने की कोशिश करता है या पुलिस पर हमला करता है तो ऐसे हालात में पुलिस उस अपराधी पर जवाबी हमला कर सकती है।
केएम नानवटी केस में प्राइवेट डिफेंस को लेकर हुई थी चर्चा
एडवोकेट अनिल कुमार सिंह बताते हैं कि नौसेना के एक कमांडर केएम नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य 1959 का एक केस कोर्ट में चला था। इस मामले में नौसेना कमांडर कावास मानेकशॉ नानावटी पर अपनी पत्नी के प्रेमी प्रेम आहूजा की हत्या का मुकदमा चलाया गया था। धारा 302 के तहत आरोपी कमांडर नानावटी को शुरू में जूरी द्वारा दोषी नहीं ठहराया गया था। हालांकि, बॉम्बे हाईकोर्ट ने फैसले को खारिज कर दियाऔर मामले को बेंच ट्रायल के रूप में फिर से चलाया गया। उस वक्त प्राइवेट डिफेंस का मामला खूब चर्चा में रहा था। इस विषय पर अक्षय कुमार की फिल्म रुस्तम बन चुकी है।
पुलिस को पैर में गोली मारना सिखाया जाता है, मगर चूक का अंदेशा
एडवोकेट अनिल कुमार सिंह कहते हैं कि पुलिस एकेडमी या अन्य ट्रेनिंग में भी पुलिस को ये सिखाया जाता है कि एनकाउंटर के दौरान अपराधी के पैर में गोली मारी जानी चाहिए। हालांकि, कई बार पुलिस की गोली से अपराधी की मौत हो जाती है। तब पुलिस यह कहकर बचाव करती है कि अपराधी के भागने से रोकने के लिए चलाई गई गोली मिस फायर हो गई और अपराधी के सीने या सिर में गोली लग गई, जिससे उसकी मौत हो गई। ऐसे मामलों में चूक का अंदेशा बना रहता है, जिसका पुलिस फायदा उठाती है।
एनकाउंटर को एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग क्यों कहा जाता है
अनिल सिंह बताते हैं कि कानून किसी भी अपराधी को सजा देने का अधिकार पुलिस को नहीं देता है। सजा पर फैसला अदालतें करती हैं। यही वजह है कि एनकाउंटर के दौरान हुई हत्याओं को एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल किलिंग भी कहा जाता है। कोर्ट का निर्देश है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत किसी भी तरह के एनकाउंटर में इन तमाम नियमों का पालन होना जरूरी है। अनुच्छेद 141 भारत के सुप्रीम कोर्ट को कोई नियम या क़ानून बनाने की ताकत देता है।
जस्टिस वेंकटचेलैया ने कहा था पुलिस को यह हक नहीं
मार्च, 1997 में तत्कालीन मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एमएन वेंकटचेलैया ने सभी मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने लिखा था-आयोग को कई जगहों से और गैर सरकारी संगठनों से लगातार यह शिकायतें मिल रही हैं कि पुलिस के फर्जी एनकाउंटर लगातार बढ़ रहे हैं। हमारे कानून में पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी व्यक्ति को मार दे और जब तक यह साबित नहीं हो जाता कि उन्होंने कानून के अंतर्गत किसी को मारा है तब तक वह हत्या मानी जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने एनकाउंटर के बाद जांच का दिया था आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में पुलिस एनकाउंटरों के संबंध में दिशा-निर्देश जारी करते हुए हर एनकाउंटर की जांच जरूरी की थी। जांच स्वतंत्र एजेंसी से होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट गाइडलाइन के अनुसार, सीआरपीसी की धारा 176 के तहत हर एनकाउंटर की मजिस्ट्रेट से जांच अनिवार्य होनी चाहिए। अनुचित एनकाउंटर में दोषी पाए गए पुलिसकर्मी को निलंबित करके उनके खिलाफ उचित कार्रवाई की जानी चाहिए। अगर दोषियों पर कार्रवाई नहीं होती है तो पीडित सत्र न्यायाधीश से इसकी शिकायत कर सकता है।
IPC के सेक्शन 96-106 में मिला था प्राइवेट डिफेंस का हक
सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट अनिल कुमार सिंह श्रीनेत कहते हैं कि इंडियन पीनल कोड, 1860 के सेक्शन 96-106 में प्राइवेट डिफेंस की बात कही गई है। इसमें कहा गया है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में एनकाउंटर को अपराध की कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता है। यह कानून देश के हर नागरिक पर लागू होता है, चाहे वो पुलिस हो या आम आदमी। अगर आत्मरक्षा में किसी की जान चली जाती है तो वह अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा। बशर्ते यह साबित हो जाए कि हत्या में किसी तरह का कोई मोटिव नहीं था। पुलिस को भी अगर कोई अपराधी भाग रहा है या गोली चला रहा है तो उसे घायल करने का अधिकार है।
NHRC ने एनकाउंटर पर ये दी है गाइडलाइन, किसे देनी होती है सूचना
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के 1997 के दिशानिर्देशों के अनुसार, सभी राज्य और संघ क्षेत्रों के थाना प्रभारी को मुठभेड़ में मौत की सूचना उचित ढंग से दर्ज करनी चाहिए।
अभियुक्त की मृत्यु के तथ्यों और परिस्थितियों की जांच के लिए तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए।
चूंकि पुलिस खुद मुठभेड़ में शामिल है, ऐसे में इसकी जांच राज्य सीआईडी जैसी किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराएं।
ऐसी जांच चार महीने के अंदर पूरी होनी चाहिए। ऐसे मुकदमें त्वरित सुनवाई होनी चाहिए।
दोषी पाए जाने पर ऐसे मामलों में मृतक के आश्रितों को मुआवजा देने पर विचार होना चाहिए।
गैर इरादतन हत्या के संज्ञेय मामलों में पुलिस के खिलाफ शिकायत दर्ज होने पर एफआईआर दर्ज हो।
पुलिस कार्रवाई के कारण हुई मौतों के सभी मामलों की मजिस्ट्रेट जांच तीन महीने में कराई जानी चाहिए।
जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक/पुलिस अधीक्षक को 48 घंटे में एनकाउंटर की सूचना एनएचआरसी को देना चाहिए।
2002 से 2013 के बीच 1,000 से ज्यादा फर्जी एनकाउंटर, यूपी आगे
NHRC के अनुसार, देश में 2002 से 2008 के बीच फर्जी एनकाउंटर के 440 मामले सामने आए। इसमें सबसे ज्यादा यूपी (231), राजस्थान(33), महाराष्ट्र्र (31), दिल्ली (26), आंध्र प्रदेश(22) और उत्तराखंड(19) में हुए। वहीं, अक्टूबर, 2009 से लेकर फरवरी, 2013 के बीच फर्जी या विवादित एनकाउंटर के सबसे ज्यादा 555 मामले सामने आए। इसमें भी यूपी (138), मणिपुर(62), असम(52), पश्चिम बंगाल(35) और झारखंड(30) सबसे ज्यादा ऐसे एनकाउंटर हुए। 2002 से 2013 के बीच यूपी में सपा और बसपा की सरकारें थीं।
7 साल में सबसे ज्यादा एनकाउंटर छत्तीसगढ़ में
2016 से लेकर 2022 तक सबसे ज्यादा एनकाउंटर नक्सल प्रभावित इलाके छत्तीसगढ़ में हुए। इसके बाद उत्तर प्रदेश में 110, असम में 79, झारखंड में 52 मुठभेड़ को अंजाम दिया गया। लद्दाख इकलौता है, जहां इन वर्षों में कोई एनकाउंटर नहीं हुआ। गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, केरल ऐसे राज्य हैं, जहां बेहद मामूली संख्या में एनकाउंटर हुए।
यूपी में ‘ऑपरेशन लंगड़ा’ क्या है, क्यों नहीं इसे अपनाती पुलिस
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, यूपी में गैर सरकारी मिशन, जिसे ऑपरेशन लंगड़ा कहा जाता है, इसमें एनकाउंटर को बड़ी संख्या में अंजाम दिया गया। 8,472 एनकाउंटर्स में से 3,300 अपराधी घायल हुए। यानी मुठभेड़ के दौरान इनके पैरों में गोली मारी गई। अनिल सिंह बताते हैं कि कई बार मीडिया या सोशल मीडिया के प्रेशर में आकर पुलिस एनकाउंटर कर देती है। पुलिस का काम अपराधी या आरोपी को पकड़ना है, उसे मौके पर सजा देना उसका काम नहीं है।
31 साल बाद फर्जी एनकाउंटर केस में पंजाब के पूर्व DIG को सजा
इसी साल जून में मोहाली की सीबीआई की विशेष अदालत ने पंजाब में 1993 में हुए फर्जी मुठभेड़ मामले में पंजाब के पूर्व डीआईजी दिलबाग सिंह को 7 साल की जेल और रिटायर्ड डीएसपी गुरबचन सिंह को उम्रकैद की सजा सुनाई। यह फैसला सुनाने में करीब 31 साल लग गए।
मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा को उम्रकैद
मुंबई के पूर्व पुलिस अधिकारी प्रदीप शर्मा पर गैंगस्टर छोटा राजन के करीबी सहयोगी रामनारायण गुप्ता उर्फ लखन भैया के फ़र्ज़ी एनकाउंटर मामले में आरोप लगे थे। इस मामले में प्रदीप शर्मा को बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसी साल मार्च में उम्रकैद की सजा सुनाई थी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने मामले में उन्हें जमानत दे दी है।