संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण*✍️

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देवभूमि न्यूज 24.इन

उत्कलखण्ड या पुरुषोत्तमक्षेत्र-महात्म्य पुरुषोत्तम क्षेत्र में चातुर्मास्य की महिमा, राजा श्वेत पर भगवत्कृपा तथा भगवत्प्रसाद का महात्म्य…(भाग 2) प्राचीन काल की बात है, त्रेतायुग में श्वेतनामक एक महान् राजा हो गये हैं। उन्होंने व्रतमें स्थित होकर भगवान् पुरुषोत्तममें बड़ी भक्ति की। राजा इन्द्रद्युम्नके द्वारा निश्चित किये हुए भोगोंकी मात्राके अनुसार वे प्रतिदिन प्रसन्नतापूर्वक भगवान् लक्ष्मीपतिके लिये भोग प्रस्तुत करते थे। अनेक प्रकारके भक्ष्य, भोज्य पदार्थ, भलीभाँति संस्कार किये हुए छहों रस, विचित्र माल्य, सुगन्ध, अनुलेपन तथा बहुत प्रकारके राजोचित उपचार अवसर-अवसरपर भगवान्‌की सेवामें समर्पित करते थे।

एक दिन राजा श्वेत प्रातःकाल पूजाके समय भगवान्‌का दर्शन करनेके लिये गये और पूजा होते समय उन्होंने श्रीहरिका दर्शन किया। देवाधिदेव भगवान्‌को प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़े प्रसन्नतापूर्वक वे मन्दिरके द्वारके समीप खड़े रहे। अपने ही द्वारा तैयार किये हुए उत्तम उपचारों तथा सहस्त्रों उपहारकी सामग्रियोंको राजाने भगवान्के सामने उपस्थित देखा। तब वे कुछ ध्यानस्थ होकर मन-ही-मन सोचने लगे- ‘क्या भगवान् श्रीहरि यह मनुष्यनिर्मित भोग ग्रहण करेंगे? यह बाह्यपूजन की सामग्री भावदूषित होने के कारण निश्चय ही भगवान्‌ को प्रसन्न करने वाली न होगी।’

इस प्रकार विचार करते हुए राजा ने देखा दिव्य सिंहासन पर साक्षात् भगवान् विष्णु विराजमान हैं और दिव्य सुगन्ध, दिव्य वस्त्र एवं दिव्य हारों से विभूषित साक्षात् लक्ष्मी देवी उनके आगे अन्न-पान आदि भोजनसामग्री परोस रही हैं और भगवान् भोजन कर रहे हैं। यह अद्भुत झाँकी देखकर राजाने अपनेको कृतार्थ माना तथा आँखें खोल दीं। फिर उन्हें पहले देखी हुई सब बातें दिखायी दीं। इससे राजाको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। भगवान्‌को निवेदित किये हुए प्रसादको ही खानेवाले व्रतशील राजाने बड़ी भारी तपस्या की। उस तपस्याका उद्देश्य यह था कि मेरे राज्यमें किसीकी अकालमृत्यु न हो और मरे हुए प्राणियोंकी मुक्ति हो जाय। शरणागतोंके लिये कल्पवृक्षस्वरूप मन्त्रराज आनुष्टुभका उन्होंने नित्य नियमपूर्वक जप किया। इस प्रकार सौ वर्षतक जप और तपस्याके पश्चात् राजाने समस्त पापोंका अपहरण करनेवाले साक्षात् भगवान् नृसिंहका दर्शन प्राप्त किया।

वे योगासनपर कमलके ऊपर विराजमान थे। उनके वामभागमें भगवती लक्ष्मी शोभा पा रही थीं। देवता, सिद्ध और मुक्त पुरुष उनकी स्तुतिमें लगे थे। ऐसे भगवान्‌को उपस्थित देखकर आश्चर्यसे चकित होकर राजा श्वेत हर्ष- गद्गद वाणीमें ‘हे नाथ! प्रसन्न होइये’ ऐसा कहते हुए धरतीपर गिर पड़े। तपस्यासे दुर्बल तथा चरणोंमें पड़े हुए निष्पाप राजा श्वेतसे भक्तवत्सल भगवान् नृसिंहने कहा- ‘वत्स! उठो, मुझे भक्तिसे प्रसन्न जानो और कोई अभीष्ट वर माँगो।’ भगवान्‌का यह वचन सुनकर राजा उठे और दोनों हाथ जोड़कर भक्तिसे विनम्र होकर बोले- ‘स्वामिन् ! यदि मुझपर आपकी अत्यन्त दुर्लभ कृपा है, तो मैं मरनेके बाद आपके समान रूप प्राप्त करके आपके समीप ही सेवामें रहूँ तथा जबतक इस पृथ्वीपर मैं राजाके पदपर रहूँ, तबतक मेरे राज्यमें कोई भी मनुष्य अकालमृत्युको न प्राप्त हो और जिसकी कालमृत्यु हो, उसकी भी सायुज्य मुक्ति हो जाय।

क्रमशः…
शेष अगले अंक में जारी

✍️ज्यो:शैलेन्द्र सिंगला पलवल हरियाणा mo no/WhatsApp no9992776726
नारायण सेवा ज्योतिष संस्थान