देवभूमि न्यूज 24.इन
पैंतीसवां अध्याय ब्रह्मा-विष्णु मोह…(भाग 1)मुनि उपमन्यु बोले- हे वासुदेव ! उस समय वहां पर ओंकार का नाद होने लगा परंतु ब्रह्मा और विष्णु दोनों ही उस ब्रह्म ध्वनि को समझ न सके। ‘ॐ’ में स्थित अकार, उकार और मकार क्रमशः दक्षिण, उत्तर और मध्य भाग में तथा अर्द्ध मात्रा रूपी नाद लिंग के मस्तक पर जा पहुंचा। प्रणव अपना रूप बदलकर वेद के रूप में प्रकट हुए। अकार से ऋग्वेद, उकार से यजुर्वेद, मकार से सामवेद और नाद से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई।
सर्वप्रथम ऋग्वेद की उत्पत्ति हुई। इसमें रजोगुण से संबंधित विधि मूर्ति थी। सृष्टि लोक, तत्वों में पृथ्वी, अव्यय, आत्मा, काल निवृत्ति, चौंसठ कलाएं और ऐश्वर्य आदि विभूतियां ऋग्वेद से प्राप्त हुईं। यजुर्वेद से सत्वगुण, अंतरिक्ष और विद्या आदि तत्वों की प्राप्ति हुई। सामवेद से तमोगुणी रुद्र मूर्ति एवं संहारक वस्तुएं उत्पन्न हुईं। अथर्ववेद में निर्गुण आत्मा का वैभव, माहेश्वरी, सदाशिव, निर्विकार आत्माओं की स्थिति का वर्णन है। नाद मेरी आत्मा है। समस्त विश्व ओंकार के अर्थ का सूचक है।
‘ॐ’ शब्द शिव का वाचक है। शिव और प्रणव में कोई अंतर नहीं है। संसार के रचनाकर्ता ब्रह्मा, रक्षक विष्णु और संहारक रुद्र हैं। रुद्र ही ब्रह्मा-विष्णु को अपने नियंत्रण में रखते हैं। वे शिव ही सब कारणों के कारण हैं। आप दोनों बिना बात ही एक-दूसरे के दुश्मन बने हैं। इसलिए मैं आपके बीच शिवलिंग रूप में उत्पन्न हुआ हूं। यह सुनकर ब्रह्मा और विष्णु दोनों का ही अभिमान टूट गया और वे भगवान शिव से बोले- हे ईश्वर ! आपने हमें अपने चरण कमलों के दर्शन का सुअवसर प्रदान किया है। हम धन्य हो गए। हमारा अपराध क्षमा करें। तब भगवान शिव बोले- हे पुत्रो ! तुम दोनों अभिमानी हो गए थे इसलिए मुझे यहां लिंग रूप में प्रकट होना पड़ा। अब अभिमान त्यागकर सृष्टि के कार्यों को पूरा करने में अपना योगदान दो
क्रमशः शेष अगले अंक में…
✍️ज्यो:शैलेन्द्र सिंगला पलवल हरियाणा mo no/WhatsApp no9992776726
*नारायण सेवा ज्योतिष संस्थान