देवभूमि न्यूज 24.इन
मोक्ष एक परम आकांक्षा है, परंतु उसके लिए पात्रता भी आवश्यक है। इस पात्रता की परिभाषा भी समझनी होगी। मोक्ष का वास्तविक अर्थ है जन्म और मृत्यु के आवागमन से मुक्ति और परमब्रह्म में विलीन होना। यह भी तथ्य है कि एक जैसे तत्व ही एक दूसरे में विलय हो सकते हैं। ईश्वर यानी ब्रह्म निर्गुण तथा सम स्थिति में है। इसका अर्थ है कि वह काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से मुक्त है। यदि प्राणी भी उसमें विलीन होना चाहता है तो उसे भी इसी स्थिति में आना पड़ेगा। तभी वह मोक्ष का पात्र बनने में सक्षम हो सकेगा। इसीलिए प्रत्येक धर्म में यही शिक्षा दी गई है कि यदि ईश्वर की प्राप्ति करनी है तो पहले बुराइयों से मुक्ति पानी होगी।
सनातन धर्म में जीवन को व्यवस्थित करने के लिए उसे चार भागों में विभाजित किया गया है। ये हैं-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। वर्तमान में 60 वर्ष की आयु के बाद मनुष्य का एक प्रकार से वानप्रस्थ आरंभ हो जाता है। जीवन के इस पड़ाव पर उसे सांसारिक बुराइयों से दूर होने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए उसे पतंजलि के अष्टांग योग का सहारा लेना चाहिए। यदि वह इसके पहले दो कदम यानी यम-सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, असते और अपरिग्रह तथा नियम-ईश्वर की उपासना, स्वाध्याय, शौच, तप, संतोष और स्वाध्याय को ही अपना ले तो बहुत हितकारी होगा।
इसमें अपरिग्रह से तात्पर्य है आवश्यकता से अधिक भंडारण न करना। असते अर्थात् किसी प्रकार की चोरी न करना। इन दोनों कदमों से ही मनुष्य की मानसिकता बदल जाएगी और परम शांति तथा सम स्थिति का अनुभव होगा। ऐसी अवस्था जिसमें कोई कामना या भय नहीं रहेगा। यदि यह अवस्था स्थायी रूप से प्राप्त हो जाती है तो मनुष्य को यह आभास हो जाना चाहिए कि वह मोक्ष का पात्र बन गया है और अब उसे सर्वशक्तिमान स्वयं अपने में विलीन करके परम शांति प्रदान करेंगे। इसी को मोक्ष का आभास भी कहा जाता है।
राजेन्द्र गुप्ता,
ज्योतिषी और हस्तरेखाविद
मो. 9116089175