बलि का अर्थ पशु की हत्या नही होती?

Share this post

देवभूमि न्यूज 24.इन


भारत में १% से भी कम मंदिर एसे हैं जहां पशुओं की हत्या होती है, जिसे मूर्ख लोग बलि कहतें हैं
किंतु बहुत कम लोगों को यह पता भी नहीं है, कि बलि का अर्थ क्या होता है
बलि का अर्थ पशु की हत्या नहीं होता।
वेद और पुराणों के अनुसार बलि का अर्थ पशुओं को दिया जाने वाला पुरोडाष अथवा यज्ञ में बचे हुए भोज्य पदार्थ को कहतें हैं —-
वेदों शास्त्रों और पुराणों के अनुसार जब प्राचीन समय में यज्ञ किया जाता था तो अश्व, हाथी , बकरा, कबूतर, बैल , मेढा,और अनेक पालतू पशुओं को यज्ञ के यूप स्थल में बांधा जाता था और वहां जंगली कंद मूल और अनेक ऐसे आहार यज्ञ में रखे जाते थे जिन्हें उस पशु का प्रमुख भोजन कहा जाता था।


गज कंद —
अश्व कंद —
अज कंद —
एसे अनेक कंद मूल होते थे जिन्हें पशुओं को यज्ञ पूरा होने के बाद खिलाया जाता हो और उनका सेवन मनुष्य भी करते थे।
हाथियों को दिया जाने वाला यज्ञ के बाद बचा पुरोडाष गज बलि,
अश्व को दिया जाने वाला पुरोडाष अश्व बलि और बकरे को दिया जाने वाला पुरोडाष अज बलि कहलाता था !
किसी भी यज्ञ और मंदिर के प्रांगण में किसी भी हत्या की बलि देना घोर पाप माना जाता है!
बलि का अर्थ पशुओं को दिया जाने वाला उनके हिस्से के हविष्यान्न को कहा जाता है।


इसीलिए बलि के भावार्थ को गलत ना मानें बलि का अर्थ होता है शरीर को बलिष्ठ करने वाला देवताओं का हविष्यान्न !
भारत के आदिवासी क्षेत्रों में कुछ मंदिर एसे भी हैं जहां आज भी बकरे को उस क्षेत्र के कुल देवता या देवी के समक्ष ले जाकर उसका भोग किया जाता है —–
हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में पूरी सिंचाई पहले वर्षा पर निर्भर होती थी और आज भी हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में ८०% कृर्षि वर्षों पर निर्भर है ; इसलिए वहां के लोग भेड अथवा बकरी पालते हैं, जब वर्षा के अभाव में उनके यहां अन्न का संकट पड जाता है और जंगली वनस्पतियां सूख जाती है, तब वहां की आदिवासी जनजातियां वहां के कुल देवी अथवा देवता के मंदिरों में बकरे या मेढे को ले जाते हैं, और हवन और यज्ञ आदि करके उस देवता से प्रार्थना करते हैं कि वह‌ उस पशु की जीव हत्या कर रहें हैं और वह देवता उनके इस कृत्य को क्षमा करें और फिर उस पशु को भोजन खिलाकर और उसे मंदिर से कुछ दूरी पर ले जाकर उसको सभी गांव वासियों में बांट देते हैं, और इसके बाद कुछ विशेष तिथियों तक अन्न की उपलब्धता ना होने के कारण शेष गांव के लोग अपने बकरे या मेढे को मारकर उसके मांस को सुखाकर कुछ दिन उससे जीवन यापन करते हैं , हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में यह तिथियां मई – जून और कुछ दिसंबर के समय में पडती हैं !


अब यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है, कि यह जीव हत्याएं — विष्णु, शिवजी, दुर्गा, गणेश, कार्तिकेय, हनुमान आदि के मंदिरों में आपको कहीं भी देखने को नहीं मिलेंगी —
भारतीय संस्कृति में देवताओं की तीन श्रेणियां हैं —
पहला सात्विक —
दूसरा राजसिक —
तीसरा तामसिक —
सात्विक और राजसिक देवताओं के किसी भी मंदिर में यह जीव हत्याएं नहीं होती ;
तामसिक देव शक्तियों में काली, भैरव, नरसिंह और नागराजा ये प्रमुख तामसिक देव मंदिर हैं आप यदि किसी भी मंदिर में आपको यह जीव हत्याएं होती दिखेंगी तो एसे ही किसी मंदिर में दिखेंगी और आप सभी को ये बातें पता भी नहीं होगी
कामख्या काली का रूप है
बंगाल में भी काली की पूजा होती है और वहां ये बलियां पहले बहुत होती थी
तीसरा महत्वपूर्ण पहलू इसका ये भी है, कि पहले पूरे भारत में राज व्यवस्थाएं थी और राजाओं के आपस में युद्ध होते थे और इस युद्ध में अनेक पशुओं का वध हो जाता था, जनता को युद्ध का परिक्षण देनें के लिए भी ताकि वह रक्त देखकर भयभीत ना हों और युद्ध और आत्मरक्षा के लिए वध करने से भी ना घबराएं इस लिए भैरव और कालि के मंदिर में भैंसा आदि की बलि देते और उसको जंगल के उस क्षेत्र में फेंक देते थे जहां से जंगली पशु – बाघ – लकड़बघ्घा या भेड़िया गांव में प्रवेश करके गांव के मनुष्यों और पशुओं पर हमला करते थे , अब शहरीकरण हो चुका है और पहले के और आज के रहन सहन में बहुत परिवर्तन आ चुका है इसलिए जो पहले होता था वह उस समय और उन लोगों के रहन सहन और जीवन पद्धति का एक हिस्सा था और वह सही भी था —–
बलि की व्याख्या को गलत तरीके से प्रस्तुत ना करें !
बलि के वास्तविक महत्व को समझने की आवश्यकता है!
वैदिक बलि और तामसिक देवों के मंदिरों में होने‌ वाले पशु वध दोनों में बहुत अंतर है।