देवभूमि न्यूज 24.इन
जब सीज़फायर हुआ था, मैंने तब भी कहा था कि इसके पीछे की वजह चाहे जो भी हो, लेकिन ऐसा करके हमने पाकिस्तान को खुद को दोबारा मज़बूत करने की मोहलत दे दी है। अब ख़बर आ रही है कि चीन फिफ्थ जेनरेशन J-35 के 40 विमान वक्त से पहले, इसी साल अगस्त में, पाकिस्तान को देने वाला है। पाकिस्तानी पायलट कतर में जाकर राफेल की प्रैक्टिस करेंगे। तुर्किए पाकिस्तान को S-400 की कमियाँ बता रहा है । उधर चीन बांग्लादेश के लालमोनिरहट के पुराने एयरपोर्ट को दोबारा बनाने की कोशिश कर रहा है। ये जगह भारत की सीमा से मात्र 12–15 किलोमीटर दूर है। मतलब साफ़ है कि भारत से तीन दिन तक चले सीमित युद्ध में हुई फज़ीहत के बाद पाकिस्तान और चीन अगली लड़ाई की तैयारी में लग गए हैं।
मैं फिर दोहराता हूँ कि चाहे सरकार हो या डिप्लोमैट्स, ये आपको कितने भी सुंदर शब्दों में क्यों न बताएं कि कैसे सीज़फायर करना समझदारी था, हमने अपने लक्ष्य हासिल कर लिए हैं, ऑपरेशन सिंदूर अब भी जारी है—लेकिन इस तथ्य को दुनिया की कोई ताकत नहीं झुठला सकती कि जब आप किसी लड़ाई में एक बार ‘अपर हैंड’ ले लेते हैं, तो वो मौका होता है निर्णायक बढ़त (Decisive Edge) लेने का।

एक ढीठ दुश्मन को ऐसा सबक सिखाने का जिसे वो और उसका मुल्क कभी भूल न पाए। उसकी आर्मी का खोखलापन सबके सामने आ जाए, वो जनता का विश्वास खो दे। और इसमें कोई दो राय नहीं कि 9 और 10 मई को भारत के पास ऐसा ही मौका था।
लोग तर्क दे रहे हैं कि भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, ऐसी लड़ाइयाँ हमें पीछे ले जाती हैं। अरे भाई, पाकिस्तान की उस वक़्त जो हालत थी, आपको बस दो दिन और हमला करना था। लेकिन उन दो दिनों के बाद जो तस्वीर निकलकर आती, उसके बाद आपको दुनिया के किसी देश में अपने सांसद नहीं भेजने पड़ते, विदेशी अख़बारों के झूठ को झुठलाने के लिए सबूत नहीं देने पड़ते। अगर सर्जिकल स्ट्राइक का मकसद आतंकियों को पनाह देने वाली पाक आर्मी के हौसले तोड़ना था, तो इस सीज़फायर ने तो उसके हौसले और बढ़ा दिए हैं।
पाकिस्तान की मूर्ख जनता इस सीज़फायर को अपनी जीत मानकर आर्मी के गुणगान कर रही है। फौज जनता को ये समझाने में कामयाब रही है कि हमने हिंदुस्तान को मात दी और उसे अमेरिका के पास भागना पड़ा। इस तरह, पाकिस्तान में फौज की हैसियत और मज़बूती और बढ़ गई है।
और अगर हमने इतनी डॉमिनेटिंग पोज़िशन में होने के बावजूद अमेरिका के कहने पर सीज़फायर किया, तो बदले में कोई आश्वासन तो मिलता! अमेरिका की ओर से ही कोई स्टेटमेंट आता जिससे दुनिया को पता चलता कि किन हालात में सीज़फायर हुआ। उल्टा ट्रंप जैसे लोगों ने अपनी शुरुआती ट्वीट में कश्मीर की बात डालकर—चाहे अनजाने में ही सही—ये इम्प्रेशन दे दिया कि पाकिस्तान मज़बूत स्थिति में था।
जिस माहौल में सीज़फायर हुआ, उसने न सिर्फ पाकिस्तान को अपनी कमज़ोरियाँ और हमारी ताकत समझने का मौका दे दिया, बल्कि चीन को भी ये अंदाज़ा हो गया कि उसे पाकिस्तान को और कितना मज़बूत करना है।
रही बात न्यूक्लियर वॉर या युद्ध बढ़ जाने के डर की, तो मैं कहना चाहूंगा कि इसी डर की वजह से तो पाकिस्तान ने हम पर 36 सालों से प्रॉक्सी वॉर छेड़ रखी है। इसी डर की वजह से तो हम पिछले 36 सालों में दो हज़ार से ज़्यादा लोग आतंकी हमलों में मरवा चुके हैं। कश्मीर में 5 लाख हिंदू पलायन कर चुके हैं। इसी डर की वजह से करगिल युद्ध से लेकर आज तक इतने ही सैनिक हम गंवा चुके हैं। लड़ाइयों का कोई हल नहीं निकलता — क्या ये सोचकर अपने 1200 नागरिक मरवाने के बाद भी इज़राइल हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना चाहिए था? अगर बैठ जाता, तो हमास फिर से 1500 लोगों को मारने की प्लानिंग करने लगता।
जिस न्यूक्लियर वॉर का डर आज था, क्या गारंटी है कि वही डर छह महीने बाद खड़ा नहीं होगा?
युद्ध समस्या का कोई हल नहीं है — ये बात भी मुल्कों को तब समझ में आती है जब वो युद्ध लड़ लेते हैं।
युद्ध लड़ने का मतलब ये नहीं होता कि हम सामने वाले को बर्बाद करना चाहते हैं। युद्ध लड़ने का मतलब ये होता है कि दुश्मन को पता लगे कि हम अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और आत्मसम्मान के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।
और ये बात उसे तब तक समझ नहीं आएगी जब तक उसे कुछ दिन की लड़ाई में ठोस नुकसान नहीं होगा, उसकी हार का तमाशा पूरी दुनिया नहीं देखेगी, उसकी फजीहत से घबराकर उस पर दांव लगाने वाले चीयरलीडर पीछे नहीं हट जाएंगे।
जीवन को कृष्ण से बेहतर कौन समझाता था। लेकिन बांसुरी बजाकर आनन्दित करने वाले यही कृष्ण जानते थे कि अपने धर्म की रक्षा के लिए युद्ध लड़ना कितना ज़रूरी है।
गीता का ये उपदेश सारी दुनिया जानती है, बस हम ही नहीं समझते। हर बार एक ज़रूरी लड़ाई ये सोचकर स्थगित कर देते हैं कि युद्ध लड़ने से कुछ नहीं होता
— और फिर पर्दे के पीछे चल रही छोटी-छोटी लड़ाइयों में बच्चों के सामने उनके पिता को मरने देते हैं।