✍️देवभूमि न्यूज 24.इन
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जीवत श्राद्ध विधान वर्णन….(भाग 1)
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सूतजी बोले- हे मुनीश्वरो ! अब मैं जीवत श्राद्ध विधि को संक्षेप से कहूँगा। जो ब्रह्माजी ने पूर्व में मनु, वशिष्ठ, भृगु आदि के लिये कही है। वह सर्व सिद्धि करने वाली है। उसे आप लोग श्रवण करें।
पर्वत पर, नदी के किनारे वन में अथवा आयतन (घर) में मरण समय में जीवत श्राद्ध करना चाहिए। जीवत श्राद्ध करने पर जीता हुआ ही मुक्त हो जाता है। चाहे वह कर्म करे अथवा न करे, ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी हो, वेदपाठी हो या अवेद पाठी हो, ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य सभी मुक्त हो जाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। जैसे योगी योग मार्ग के द्वारा मुक्त होता है, वैसे ही जीवत श्राद्ध वाला मुक्त होता है।
भूमि की परीक्षा करके उसे शुद्ध करे। बालू का स्थण्डल बनावे उसके बीच में एक हाथ का कुण्ड बनावे अथवा बाण के बराबर का कुण्ड बनावे। विधान के द्वारा गौ के गोबर से वेदी के स्थान को लीप कर तथा धूप, दीप आदि से वेदी के स्थान को सुगन्धित करे तथा विभिन्न-विभिन्न प्रकार के मंगल द्रव्यों से सुशोभित करके अग्नि की स्थापना करे। कुशाओं का परिस्त्रण करके स्थण्डल पर अग्नि का पूजन करके समिधाओं का हवन करे। पूर्व में समिधाओं का बाद में अलग-अलग चरुओं का हवन करे। हवन के मन्त्र नीचे लिखे अनुसार हैं –

ॐ भू ब्रह्मणे नमः ॥ ॐ स्व रुद्राय स्वाहा ॥ ॐ महः ईश्वराय नमः ॥ ॐ महः ईश्वराय स्वाहा ॥ ॐ जनः प्रकृतये नमः ॥ ॐ जनः प्रकृत्यै स्वाहा ॥ ॐ तपः मुद्गलाय नमः ॥ ॐ मुग्दलाय स्वाहा ॥ ॐ ऋतं पुरुषाय नमः ॥ ॐ ऋतं पुरुषाय स्वाहा ॥ ॐ सत्य शिवाय नमःः ॥ ॐ सत्यं शिवाय स्वाहा ॥
ॐ शर्व ! धराँ मे गोपाय घ्राणे गन्धं शर्वय देवाय भूर्नमः ॥
ॐ शर्व ! धरौं मे गोपाय घ्राणे गन्धं शर्वय भूः स्वाहा ॥
ॐ शर्व ! धराँ मे गोपाय घ्राणे गन्धं शर्वस्य देवस्य पत्यै भूर्नमः ॥
ॐ शर्व ! धराँ मे गोपाय घ्राणे गन्धं शर्व पत्न्यै भू स्वाहा ॥
ॐ भव ! जलं मे गोपाय जिह्वायां रसम्भवाय देवाय भुवा नमः ॥
ॐ भव ! जलं मे गोपाय जिह्वायां रसम्भवाय देवाय भुवः स्वाहा ॥
ॐ भव ! जलं मे गोपाय जिह्वायां रसम्भवस्य देवस्य पल्यै भुवो नमः ॥
ॐ भव ! जलं मे गोपाय जिह्वायां रसम्भवस्य पत्न्यै भुवः स्वाहा ॥
ॐ रुद्राग्नि मे गोपाय नेत्रे रूपं रुद्राय स्वरो नमः ।।
ॐ रुद्राग्नि मे गोपाय नेत्रे रूपं रुद्रस्य देवस्य पत्यै स्वः स्वाहा ॥
ॐ उग्र ! वायुं मे गोपाय त्वचि स्पर्शम् उग्राय देवाय महर्नमः ॥
ॐ उग्र ! वायुं मे गोपाय त्वचि स्पर्शम् उग्राय देवाय महः स्वाहा ।।
ॐ उग्र ! वायुं मे गोपाय त्वचि स्पर्शम् उग्रस्य देवस्य पत्न्यै महरों नमः ॥
ॐ उग्र ! वायुं मे गोपाय त्वचि स्पर्शम् उग्रस्य देवस्य पत्न्यै महः स्वाहा ॥
ॐ भीम ! सुषिरं मे गोपाय श्रोत्रे शब्दं भीमाय देवाय जनो नमः ॥
ॐ भीम ! सुषिरं मे गोपाय श्रोत्रे शब्दं भीमाय देवाय जनः स्वाहा ॥
ॐ भीम ! सुषिरं मे गोपाय श्रोत्रे शब्दं भीमस्य देवस्य पत्न्यै जनो नमः ॥
ॐ भीम ! सुषिरं मे गोपाय श्रोत्रे शब्दं भीमस्य देवस्य पल्यै जनः स्वाहा ।। इत्यादि तथा ॐ भूः स्वाहा। ॐ भुवः स्वाहा। ॐ स्वः स्वाहा ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ॥
इस प्रकार मन्त्रों से हवन करके सातवें दिन योगीन्द्रों को जो श्राद्ध के योग्य हों उन्हें भोजन करावे। ब्राह्मणों के लिए वस्त्र, आभूषण, शैय्या, काँस पात्र, ताम्र पात्र, सुवर्ण पात्र, चाँदी के पात्र, धेनु, तिल, खेत, दासी, दास तथा दक्षिणा आदि प्रदान करनी चाहिये। पहली तरह पिण्ड को आठ प्रकार से देना चाहिये। हजार ब्राह्मणों को दक्षिणा सहित भोजन कराना चाहिए। यीग में तत्पर भस्म लगाये हुए जितेन्द्रिय योगी को तीन दिन तक महाचरु निवेदन करना चाहिए। मरने पर करे या न करे, वह तो जीवित ही मुक्त है। नित्य नैमित्तिक कार्यों को बान्धव के मरने पर नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि उसे शौचाशौच नहीं लगता। उसका सूतक स्नान मन्त्र से ही शुद्ध होता है। अपनी स्त्री में पुत्र के उत्पन्न होने पर उसका भी सर्व कर्म ऐसे ही करना चाहिए क्योंकि वह पुत्र भी ब्रह्म के समान होता है। यदि कन्या उत्पन्न होगी तो वह अपर्णा के समान होगी। उसके वंशज सब मुक्त हो जायेंगे। नर्क से सब पितर मुक्त हो जायेंगे।
इस प्रकार यह सब ब्रह्माजी ने पूर्व में मुनियों से कहा था। सनत्कुमार ने श्री कृष्ण द्वैपायन से इसको कहा और वेदव्यास से मैंने सुना। सो मैंने अति गोपनीय और कल्याणप्रद रहस्य तुमसे कहा। इसे मुनि पुत्र और भक्त को देना चाहिए, अभक्त को नहीं देना चाहिए।
क्रमशः शेष अगले अंक में…
✍️ज्यो:शैलेन्द्र सिंगला पलवल हरियाणा mo no/WhatsApp no9992776726
नारायण सेवा ज्योतिष संस्थान