चातुर्मास महात्म्य (अध्याय – 06)✍️

Share this post

देवभूमि न्यूज 24.इन

इस अध्याय में पढ़िये👉(सती का देहत्याग, पार्वती विवाह, भगवान् शिव का हरिहर रूप में प्राकट्य और शालग्राम शिला का महत्त्व)

गालवजी कहते हैं-भगवान् विष्णु जिस प्रकार शालग्राम शिला के स्वरूप को प्राप्त हुए हैं। और भगवान् शिव भी जिस प्रकार लिंगाकार में स्थित हुए हैं, वह सब प्रसंग में तुमसे कहता हूँ, सुनो। पूर्वकाल में ब्रह्माजी के अंगूठे से प्रजापति दक्ष उत्पन्न हुए थे। दक्ष के सती नाम की एक पुत्री हुई, जो उत्तम लक्षणों से सम्पन्न और बड़ी साध्वी थी! विधि के ज्ञाता भगवान् शंकर ने सती के साथ वेदोक्त विधि से विवाह किया दक्ष प्रजापति का चित मोहवश मूढता को प्राप्त हो गया था। उन्होंने एक महान् यज्ञ का आयोजन किया और उसमें भगवान् शंकर के प्रति द्वेष-भाव का परिचय दिया। पिता के उस महान् द्वेष से सती देवी कुपित हो उठीं और यज्ञवेदी में आकर प्राणायाम में तत्पर हो उन्होंने अग्निमयी धारणा के द्वारा अपना शरीर त्याग दिया। उनके शरीर में जो पैतृक अंश था, उसका परित्याग करके अपने भाग के साथ सतीदेवी ने मन-ही-मन शीतल हिमालय का चिन्तन किया मृत्युकाल में अपने कर्म के अधीन हुआ मन जहाँ-जहाँ जाता हैं वहाँ वहीं उसका अवतार होता है।

अंत: अग्नि में जली हुई सती देवी शीतल हिमालय का चिन्तन करने के कारण हिमालय की पुत्री हुईं। वहाँ पर्वत कन्या होकर उन्होंने शिव भक्ति में तत्पर हो बड़ी उग्र तपस्या की। तदनन्तर सहस्रों वर्षों के पश्चात् भूतभावन भगवान् महेश्वर ब्राह्मण का वेष धारण कर उस स्थान पर आये और पार्वती के कर्म एवं स्वभाव की परीक्षा लेकर उन्हें तपस्या से विशुद्ध जाना। तत्पश्चात् दिव्य शरीर धारण करके भगवान् शिव ने पार्वती का हाथ पकड़ लिया और कहा – ‘देवि! तुमने तपस्या से मुझे जीत लिया है, बोलो तुम्हारा कौन- सा प्रिय कार्य करूँ?’ तब पार्वती ने महेश्वर से कहा-‘आप मुझे अंगीकार करने में मेरे पिता को निमित्त बनाइये।’ उनके इस प्रकार कहने पर भगवान् शंकर ने सप्तर्षियों को हिमालय के पास भेजा। सप्तर्षियों ने हिमालय के पास जाकर लग्न का समय बतलाया और महादेवजी से सब समाचार कहकर वे अपने स्थान को चले गये। तदनन्तर लग्न के दिन इन्द्र आदि सब देवता ब्रह्मा, विष्णु और अग्नि को आगे करके आये और ‘वर’ वेष में भगवान् शंकर का दर्शन करके बड़े प्रसन्न हुए। हिमवान् ने दूलह-वेष में भगवान् शंकर का दर्शन करके अपने को कृतार्थ माना और प्रसन्नता पूर्वक मधुपर्क आदि शुभ उपचारों से उनका पूजन किया। तत्पश्चात् वेदोक्त विधि से उस गुणवती कन्या को हिमवान् ने भगवान् शिव को सौंप दिया। उसके बाद भगवान् शिव ने अग्नि की परिक्रमा की और जब उनसे गोत्र आदि पूछा गया, तब वे लज्जित-से हो गये। तत्पश्चात् ब्रह्माजी के कथनानुसार विवाह की शेष विधि पूरी की गयी। जो यज्ञ में चरु ग्रहण करते समय अपने पाँच मुख प्रकाशित करने वाले हैं वे ही भगवान् महेश्वर गिरिराज नन्दिनी के लिये सुन्दर रूप और वेष-भूषा सम्पन्न ‘वर’ बने हुए विराजमान थे। पार्वती ने भगवान् शंकर को ही अपना प्राणवल्लभ स्वीकार किया। विवाह के पश्चात् दहेज देकर हिमालय ने शिवजी को विदा किया। वहाँ से भगवान् शिव मन्दराचल पर्वत पर आये। वहाँ विश्वकर्मा ने उनके लिये क्षण भर में मणिमय भवन का निर्माण किया। वह मन्दिर देवाधिदेव भगवान् शिव की इच्छा के अनुसार बढ़ने वाला था। उस सुन्दर भवन में पार्वती के साथ निवास करते हुए भगवान् शंकर की दृष्टि में वायुरूप धारी कामदेव आया। कामदेव ने शिवजी को देखकर इस प्रकार स्तवन किया- ‘वृषभध्वज ! आपको नमस्कार है। आप सर्वस्वरूप हैं. आपको नमस्कार है। आप गणों के स्वामी हैं, आपको नमस्कार है। हे नाथ! मेरी रक्षा कीजिये। प्रभो ! आपके इस चराचर जगत् में कोई ऐसी वस्तु नहीं दिखायी देती, जो आप से रहित हो। आप ही रक्षक, आप ही सृष्टि करने वाले तथा आप ही समस्त संसार का संहार करने वाले हैं। महादेव! मुझ पर कृपा कीजिये और मुझे देह दान दीजिये।’

भगवान् शिव बोले- कामदेव! मैंने पूर्व काल में तुम्हें पार्वती के आगे भस्म किया है। अब पुनः उन्हीं के समीप शरीरधारी हो जाओ।

भगवान् शिव के ऐसा कहने पर कामदेव ने अपना शरीर धारण किया और विनय से नम्र हो उसने पार्वती के दोनों चरणों में प्रणाम किया। उस समय उसके मन में बड़ी प्रसन्नता थी। पार्वती और परमेश्वर का प्रसाद पाकर महामोह एवं बल से सम्पन्न महातेजस्वी कामदेव तीनों लोकों में विचरण करने लगा।

प्राचीन काल में देवासुर-संग्राम के अवसर पर भयंकर रूप धारण करने वाले बलोन्मत्त दानवों ने देवताओं को मारा। देवता भयभीत होकर ब्रह्माजी की शरण में गये। वृहस्पति आदि सभी देवताओं ने जगत् पिता ब्रह्मा को नमस्कार करके उनका स्तवन किया। फिर सब-के सब हाथ जोड़कर खड़े ही गये। तब ब्रह्माजी ने उनसे पृछा-‘देवताओ!
किसलिये मेरे पास आये हो?’

देवता बोले-तात ! अद्भुत पराक्रम करने वाले देत्यों ने युद्ध में हमें परास्त कर दिया। अत: हम सब लोग आपकी शरण में आये हैं। देवेश्वर! अपनी शरण में आये हुए हम लोगों की आप रक्षा कीजिये।

देवताओं की यह बात सुनकर ब्रह्माजीने कहा- एक समय शिव भक्तों ने भगवान् विष्णु के भक्तों के साथ एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बड़ा विवाद हुआ। तब भगवान् शंकरने अपने भक्तोंके देखते-देखते एक परम अद्भुत रूप धारण किया। वह उनका हरिहरस्वरूप था। वे आधे शरीर से शिव और आधे शरीर से विष्णु हो गये एक ओर भगवान् विष्णु के चिह्न और दूसरी ओर भगवान् शिव के चिह्न प्रकट हुए। एक ओर गरुड़ और दूसरी ओर नन्दी वृषभ उपस्थित थे। एक ओर मेघ के समान श्याम वर्ण था तो दृसरी ओर कर्पूर के समान गौर वर्ण। दोनों में एकता का स्परष्टीकरण हुआ। इसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व में एक ही भगवान् व्यापक हैं। अत: विश्व भगवान् से भिन्न नहीं है। इस तरह भगवान् की एकता का बोध हुआ। श्रुतियों और स्मृतियों के अर्थ को बाधित करने वाली भेद बुद्धि नष्ट हो गयी। पाखण्डी और युक्तिवादी सब आश्चर्य चकित हो गये सबने अपने-अपने मत का आग्रह छोड़कर मोक्ष मार्ग की शरण ली। मन्दराचल पर्वत पर वह हरिहर-मूर्ति आज भी विद्यमान है, जिसकी प्रमथ आदि गण सदा स्तुति करते रहते हैं। सृष्टि, पालन और संहार करने वाली वह मूर्ति सम्पूर्ण विश्व का बीज एवं अनन्त है। शिव और विष्णु की उस संयुक्त मूर्ति का स्मरण करने पर वह सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली है। वह परम सत्य एवं योगी पुरुषों के द्वारा चिन्तन करने योग्य है। मुक्ति की इच्छा करने वाले मनुष्य उस मूर्ति का ध्यान करके परम पद को प्राप्त होते हैं। चातुर्मास्य में विशेष रूप से उसका ध्यान करके मनुष्य फिर मानव लोक में जन्म नहीं लेता। उस हरिहर-मूर्ति के समीप जो लोग जाते हैं, उनका वे भगवान् कल्याण करते हैं।

ऐसा कहकर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् वे अग्नि आदि देवता मन्दराचल पर्वत पर गये और भगवान् महेश्वर को खोजते हुए वहीं भ्रमण करने लगे। तदनन्तर चातुर्मास्य पूर्ण होने पर हरिहर स्वरूपधारी भगवान् शिव उनके ऊपर प्रसन्न हो प्रत्यक्ष दर्शन देकर बोले-‘ देवेश्वरो! अब तुम लोग जाओ और अपने-अपने अधिकारों का उपभोग करो। मैंने उन दानवों को जिनसे तुम्हें भय था, मार डाला है। तब प्रसन्नचित्त एवं बाधा रहित देवता कोटि-कोटि विमानों के द्वारा अपने-अपने अधिकारों को प्राप्त हुए।

एक समय सब देवताओं तथा भगवान् विष्णु और शिव के द्वारा भी पार्वतीजी की इच्छा के प्रतिकूल कोई कार्य हो गया इससे उन्होंने देवताओं को मत्त्यलोक में प्रस्तर-प्रतिमा होने का शाप दिया। उसी समय उन्होंने भगवान् विष्णु से कहा-‘आप भी मत्त्यलोक में शिलारूप होंगे और शिवजी को भी ब्राह्मणों के शाप से लिंगाकार प्रस्तररू प्राप्त होगा। तब भगवान् विष्णु ने पार्वतीजी को प्रणाम करके कहा-‘महाव्रते ! महाद्रेवि ! आप सदैव महादेवजी की प्रिया हैं। सम्पूर्ण भूतों की जननि! आपको नमस्कार है। आप कल्याणमयी हैं, आपको नमस्कार है। तब पार्वतीजी ने प्रसन्न होकर कहा- जनार्दन ! आप शिलारूप में रहकर भी योगीश्वरों को मोक्ष देनेवाले होंगे। विशेषतः चातुर्मास्य में सब भक्तों की कामनाएँ पूर्ण करने वाले होंगे ब्रह्माजी की प्यारी पुत्री जो गण्डकी नामवाली नदी है, वह महान् जलराशि से भरी हुई और परम पुण्यदायिनी है। उसी के अत्यन्त निर्मल नीर में आपका निवास होगा। पुराणों के ज्ञाता आपको चौबीस स्वरूपों में देखेंगे। आपके मुख में सुवर्ण होगा और शालग्राम आपकी संज्ञा होगी। गोलाकार तेजोमय शरीर अपूर्व शोभा से युक्त होगा। उस शालग्राम स्वरूप में आप सम्पूर्ण सामर्थ्य से युक्त होकर योगियों को भी मोक्ष देने वाले होंगे। शालग्राम-शिला में व्याप्त हुए आपका जो मनुष्य पूजन करेंगे, उन भक्तों को आप मनोवांछित सिद्धि प्रदान करेंगे।

गालवजी कहते हैं – महाशूद्र ! भगवान् विष्णु जिस प्रकार शालग्राम-शिलामय स्वरूप को प्राप्त हुए, वह सब प्रसंग मैंने तुम्हें बता दिया।

संदर्भ:👉 श्रीस्कन्द महापुराण
✍️ज्यो:शैलेन्द्र सिंगला पलवल हरियाणा mo no/WhatsApp no9992776726
नारायण सेवा ज्योतिष संस्थान